Friday 24 February 2017

कविताएँ

वह कौन सा देश है ? कविता

मन-मोहिनी प्रकृति की गोद में जो बसा है।
सुख-स्वर्ग-सा जहाँ है वह देश कौन-सा है?
जिसका चरण निरंतर रतनेश धो रहा है।
जिसका मुकुट हिमालय वह देश कौन-सा है?
नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं।
सींचा हुआ सलोना वह देश कौन-सा है?
जिसके बड़े रसीले फल, कंद, नाज, मेवे।
सब अंग में सजे हैं, वह देश कौन-सा है?
जिसमें सुगंध वाले सुंदर प्रसून प्यारे।
दिन रात हँस रहे है वह देश कौन-सा है?
मैदान, गिरि, वनों में हरियालियाँ लहकती।
आनंदमय जहाँ है वह देश कौन-सा है?
जिसकी अनंत धन से धरती भरी पड़ी है।
संसार का शिरोमणि वह देश कौन-सा है?
सब से प्रथम जगत में जो सभ्य था यशस्वी।
जगदीश का दुलारा वह देश कौन-सा है?
पृथ्वी-निवासियों को जिसने प्रथम जगाया।
शिक्षित किया सुधारा वह देश कौन-सा है?
जिसमें हुए अलौकिक तत्वज्ञ ब्रह्मज्ञानी।
गौतम, कपिल, पतंजलि, वह देश कौन-सा है?
छोड़ा स्वराज तृणवत आदेश से पिता के।
वह राम थे जहाँ पर वह देश कौन-सा है?
निस्वार्थ शुद्ध प्रेमी भाई भले जहाँ थे।
लक्ष्मण-भरत सरीखे वह देश कौन-सा है?
देवी पतिव्रता श्री सीता जहाँ हुईं थीं।
माता पिता जगत का वह देश कौन-सा है?
आदर्श नर जहाँ पर थे बालब्रह्मचारी।
हनुमान, भीष्म, शंकर, वह देश कौन-सा है?
विद्वान, वीर, योगी, गुरु राजनीतिकों के।
श्रीकृष्ण थे जहाँ पर वह देश कौन-सा है?
विजयी, बली जहाँ के बेजोड़ शूरमा थे।
गुरु द्रोण, भीम, अर्जुन वह देश कौन-सा है?
जिसमें दधीचि दानी हरिचंद कर्ण से थे।
सब लोक का हितैषी वह देश कौन-सा है?
बाल्मीकि, व्यास ऐसे जिसमें महान कवि थे।
श्रीकालिदास वाला वह देश कौन-सा है?
निष्पक्ष न्यायकारी जन जो पढ़े लिखे हैं।
वे सब बता सकेंगे वह देश कौन-सा है?
छत्तीस कोटि भाई सेवक सपूत जिसके।
भारत सिवाय दूजा वह देश कौन-सा है?
श्री राम नरेश त्रिपाठी

चतुर चित्रकार : कविता

चित्रकार सुनसान जगह में, बना रहा था चित्र,
इतने ही में वहाँ आ गया, यमराज का मित्र।
उसे देखकर चित्रकार के तुरत उड़ गए होश,
नदी, पहाड़, पेड़, पत्तों का, रह न गया कुछ जोश।
फिर उसको कुछ हिम्मत आई, देख उसे चुपचाप,
बोला-सुंदर चित्र बना दूँ, बैठ जाइए आप।
डकरू-मुकरू बैठ गया वह, सारे अंग बटोर,
बड़े ध्यान से लगा देखने, चित्रकार की ओर।
चित्रकार ने कहा-हो गया, आगे का तैयार,
अब मुँह आप उधर तो करिए, जंगल के सरदार।
बैठ गया पीठ फिराकर, चित्रकार की ओर,
चित्रकार चुपके से खिसका, जैसे कोई चोर।
बहुुत देर तक आँख मूँदकर, पीठ घुमाकर शेर,
बैठे-बैठे लगा सोचने, इधर हुई क्यों देर।
झील किनारे नाव थी, एक रखा था बाँस,
चित्रकार ने नाव पकड़कर, ली जी भर के साँस।
जल्दी-जल्दी नाव चला कर, निकल गया वह दूर,
इधर शेर था धोखा खाकर, झुँझलाहट में चूर।
शेर बहुत खिसियाकर बोला, नाव ज़रा ले रोक,
कलम और कागज़ तो ले जा, रे कायर डरपोक।
चित्रकार ने कहा तुरत ही, रखिए अपने पास,
चित्रकला का आप कीजिए, जंगल में अभ्यास।
श्री रमा नरेश त्रिपाठी

तिल्लीसिंह जा पहुँचे दिल्ली : कविता

पहने धोती कुरता झिल्ली,
गमछे से लटकाए किल्ली,
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली,
तिल्लीसिंह जा पहुँचे दिल्ली!
पहले मिले शेख जी चिल्ली,
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली,
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली,
तिल्लीसिंह ने पाली पिल्ली!
पिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली,
उसने धर दबोच दी बिल्ली,
मरी देखकर अपनी बिल्ली,
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली!
लेकर लाठी एक गठिल्ली,
उसे मारने दौड़ा चिल्ली,
लाठी देख डर गया तिल्ली,
तुरंत हो गई धोती ढिल्ली!
कसकर झटपट घोड़ी लिल्ली,
तिल्लीसिंह ने छोड़ी दिल्ली,
हल्ला हुआ गली दर गल्ली,
तिल्लीसिंह ने जीती दिल्ली!
श्री राम नरेश त्रिपाठी

हे प्रभो! आनन्द दाता : प्रार्थना

हे प्रभो! आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रत-धारी बनें॥
प्रार्थना की उपर्युक्त चार पंक्तियाँ ही देश के कोने-कोने में गायी जाती हैं। लेकिन सच तो ये है कि माननीय त्रिपाठी जी ने इस प्रार्थना को छह पंक्तियों में लिखा था। जिसकी आगे की दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
गत हमारी आयु हो प्रभु! लोक के उपकार में
हाथ डालें हम कभी क्यों भूलकर अपकार में

श्री राम नरेश त्रिपाठी

चंदा मामा गए कचहरी : कविता

चंदा मामा गए कचहरी, घर में रहा न कोई,
मामी निशा अकेली घर में कब तक रहती सोई!
चली घूमने साथ न लेकर कोई सखी-सहेली,
देखी उसने सजी-सजाई सुंदर एक हवेली!
आगे सुंदर, पीछे सुंदर, सुंदर दाएँ-बाएँ,
नीचे सुंदर, ऊपर सुंदर, सुंदर सभी दिशाएँ!
देख हवेली की सुंदरता फूली नहीं समाई,
आओ नाचें उसके जी में यह तरंग उठ आई!
पहले वह सागर पर नाची, फिर नाची जंगल में,
नदियों पर नालों पर नाची, पेड़ों के झुरमुट में!
फिर पहाड़ पर चढ़ चुपके से वह चोटी पर नाची,
चोटी से उस बड़े महल की छत पर जाकर नाची!
वह थी ऐसी मस्त हो रही आगे क्या गति होती,
टूट न जाता हार कहीं जो बिखर न जाते मोती!
टूट गया नौलखा हार जब, मामी रानी रोती,
वहीं खड़ी रह गई छोड़कर यों ही बिखरे मोती!
पाकर हाल दूसरे ही दिन चंदा मामा आए,
कुछ शरमा कर खड़ी हो गई मामी मुँह लटकाए!
चंदा मामा बहुत भले हैं, बोले-‘क्यों है रोती’,
दीवा लेकर घर से निकले चले बीनने मोती

श्री राम नरेश त्रिपाठी

स्वदेश प्रेम : कविता

न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना
करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख
अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना
करूँ मैं प्रेम हिंदी से, पढूँ हिंदी लिखूँ हिंदी
चाल हिंदी चलूँ, पहनना- ओढना हिंदी
जाना हो कहीं तो, हिंदी – सभा में ही हो जाना
भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना
लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन
करुँ मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना
नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से “बिस्मिल” तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना
अमर शहीद राम प्रसाद ” बिस्मिल “

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर : कविता

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था
जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था
गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक[1] पर
वह आसमान का घोड़ा था
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में
बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि[2] की सेना पर घहर गया
भाला गिर गया गिरा निसंग
हय[3] टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग
श्री श्याम नारायण पाण्डेय

हे ग्राम देवता ! नमस्कार : कविता

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
सोने-चाँदी से नहीं किंतु
तुमने मिट्टी से दिया प्यार ।
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
जन कोलाहल से दूर-
कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,
रवि-शशि का उतना नहीं
कि जितना प्राणों का होता प्रकाश
श्रम वैभव के बल पर करते हो
जड़ में चेतन का विकास
दानों-दानों में फूट रहे
सौ-सौ दानों के हरे हास,
यह है न पसीने की धारा,
यह गंगा की है धवल धार ।
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
अधखुले अंग जिनमें केवल
है कसे हुए कुछ अस्थि-खंड
जिनमें दधीचि की हड्डी है,
यह वज्र इंद्र का है प्रचंड !
जो है गतिशील सभी ऋतु में
गर्मी वर्षा हो या कि ठंड
जग को देते हो पुरस्कार
देकर अपने को कठिन दंड !
झोपड़ी झुकाकर तुम अपनी
ऊँचे करते हो राज-द्वार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ये खेत तुम्हारी भरी-सृष्टि
तिल-तिल कर बोये प्राण-बीज
वर्षा के दिन तुम गिनते हो,
यह परिवा है, यह दूज, तीज
बादल वैसे ही चले गए,
प्यासी धरती पाई न भीज
तुम अश्रु कणों से रहे सींच
इन खेतों की दुःख भरी खीज
बस चार अन्न के दाने ही
नैवेद्य तुम्हारा है उदार
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
यह नारी-शक्ति देवता की
कीचड़ है जिसका अंग-राग
यह भीर हुई सी बदली है
जिसमें साहस की भरी आग,
कवियो ! भूलो उपमाएँ सब
मत कहो, कुसुम, केसर, पराग,
यह जननी है, जिसके गीतों से
मृत अंकर भी उठे जाग,
उसने जीवन भर सीखा है,
सुख से करना दुख का दुलार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ये राम-श्याम के सरल रूप,
मटमैले शिशु हँस रहे खूब,
ये मुन्न, मोहन, हरे कृष्ण,
मंगल, मुरली, बच्चू, बिठूब,
इनको क्या चिंता व्याप सकी,
जैसे धरती की हरी दूब
थोड़े दिन में ही ठंड, झड़ी,
गर्मी सब इनमें गई डूब,
ये ढाल अभी से बने
छीन लेने को दुर्दिन के प्रहार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
तुम जन मन के अधिनायक हो
तुम हँसो कि फूले-फले देश
आओ, सिंहासन पर बैठो
यह राज्य तुम्हारा है अशेष !
उर्वरा भूमि के नये खेत के
नये धान्य से सजे वेश,
तुम भू पर रहकर भूमि-भार
धारण करते हो मनुज-शेष
अपनी कविता से आज तुम्हारी
विमल आरती लूँ उतार !
हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
डॉ. रामकुमार वर्मा

चाँद का कुर्ता: कविता

         चाँद का कुर्ता

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह “दिनकर”
राजेश कुमार सिंह
पूर्व पुस्तकालयाध्यक्ष
द्वारा प्रकाशित